Monday, March 06, 2017

खामोशियों के दरमियान

झक्क सफ़ेद कैनवास की 
तानी चादर में 
चारकोल से खींची 
कुछ आड़ी तिरछी लकीरें 
और, उनमे उभरता तुम्हारा अक्स 
घेरदार फ्रॉक में तुम मुझे बगुला लगती थी 

अभी भी याद है मुझको 
पुराने मकान की ऊपरी छत 
और वहां एक बालकनी 
जहाँ पर रोज़ मैं बैठा सपने बुनता रहता था 
बस वहीँ मोड़ के नुक्कड़ पर 
इमली का पेड़ बूढा सा 
वहीँ नीचे उसी के 
रंग बिरंगी पतंगियों से सजे तांगे 
गोटेदार कपड़ों से पाती बग्घियां 
और, घोड़ों की रानों पर सजे गुलाबी फुलरे 
वहां नीचे से ही बाज़ार शुरू होता था 
जहाँ अक्सर-
रहमान चाचा की बग्घी खड़ी होती थी 
मैं वहां रोज़ यही मंजर देखा करता 
वही उस भीड़ में ढुढती मेरी नजरें 
अक्सर मायूस हुआ करती थीं 

चंद भर लोग ही इसके गवाह होते 
मकान की छत / बालकनी / रहमान चाचा की बग्घी / घोड़ों की रानों में लगे गुलाबी फुलरे /
गोटेदार कपड़ों से पाती बग्घियां-
और तुम.... 
सभी समां चुके हैं झक्क सफ़ेद कैनवास में 
तारपीन के तेल की खुशबु से अभी जिन्दा हैं 
सपने गड्डमड्ड हो टूटकर बिखरते हैं 
कई रातों से मैं सोया नहीं हूँ।

Friday, November 15, 2013

Upanisads-a visual imagery


A  SOLO exhibition of veteran artist shri BALA DATT PANDEY from Allahabad, show titled “Upanisads-a visual imagery took place at Lalit Kala Akademi, gallery no-7, Rabindra bhavan, New Delhi-1, on 6:pm, sunday, 10th Nov 2013, 

Dr. Karan Singh (president of ICCR) Indian council for cultural relations, will grace the occasion as chief guest and after visiting the exhibition he impressed and said a most imaginative attempt to portray the eternal truth of the Upanisads through a series of paintings. Pandit Bala Datt Pandey has under bless a heroic task.   

Artist Shri BALA DATT PANDEY displayed 40 Number of paintings out of 100 he has produced on this series...Most of the paintings are in oil on canvases and few of it done on paper pulp and metal. A visual imagination on slokas, vedas of Upanisads of our Indian culture and heritage. It is a spiritual walk through the gallery. The artist is very strong and pandit of Vedas and slokas in expressing his idea with rich & colorful palette with his creative spiritual compositions. Bala Datt Pandey leaves an impression on every viewer “imagination is greater than knowledge” you will find after watching his paintings. It is beyond our imagination to understand his thoughts and we definitely feel that known is drop unknown is ocean to us. Show till remain on view till 16th Nov 2013.

BALA DATT PANDEY in his own words ….
In the present exhibition of paintings an effort has been made to visualize the spiritual aspect of the knowledge of the absolute. The painter here is enamored of the manifestation of divine. He is deeply wedded to our cultured heritage.

  Artist has deep feeling that man is part of those natural forces which are being created by some all pervading  celestial  being .as the circle is the metaphor of completeness, so emanating light is the  symbol of that creator ,life ,knowledge  and the centre of  the universe.

 The basic questions that arise are: who is the source of the power of such gods as Indra, Fire and Air? Who has created   them? Subtler then the atom and greatest of the great, This ’BRAHMA’ reside in the innermost recesses of our being .The humble but inspired painter feels that ‘Brahma’ is within him also. Here is an over whelming flash of bliss .It is as though he is spark of that light.

In the contemporary modern art and on the basis of the wisdom of the Upanisads his work is a humble attempt and, perhaps, it may add a new dimension to art. Our age old wisdom has provided frontality and meaning to the abstractions in my paintings.

The approach to reality and the comprehension can be many sided. Painting is the artistic execution that gives form to the purpose of creation .thus it is an attempt not the attempt .In the effort apart from the exhibited here in the exhibition so far the 80 paintings has been developed to unfold the soul mystery.

The Show will continue till 16th November 2013 at Lalit Kala Akademi, Gallery no 7, Ravindra Bhawan, New Delhi-1
 


Monday, July 29, 2013

आर्ट फॉर उत्तराखंड-जुलाई-14, 2013

आर्ट फॉर उत्तराखंड ' ललित कला अकादमी' रवींद्र भवन दिल्ली, चित्रकार जतिन दास की अगुवाई में हुई सामूहिक प्रदर्शनी में प्रदर्शित मेरा एक चित्र - शीर्षक 'शिकस्त', 36"x 48 ", ऐक्रेलिक आन कैनवास-2012,जुलाई-14, 2013 


Wednesday, April 17, 2013

कुछ पुरानी डायरी से...


17.04.13

हम बेहद मामूली किस्म के लोग हैं...आज भी हमें बहुत ज्यादा चीजों की समझ नहीं है... रोज जो भी कुछ नया देखने को मिलता है, लोगों से सुनते हैं, पढ़ते हैं उसी से सीखने की कोशिश करते हैं। 16 साल की उम्र में पहली बार शहर देखा, ट्रेन में बैठे, अकेले सफर किया जगमगाती रोशनी देखी, सड़के देखी, तरह-तरह की गाड़ियाँ., वगैरह। और वह पुल भी जिसमें से ट्रेन भरभराती-हरहराती निकलती थी। वहाँ के लोग, तौर-तरीके, रहन-सहन, भाषा- सब बड़ा तिलस्मी सा लगता था… वहाँ की गंगा-जमुनी तहजीब में जीने का बड़ा मन करता था। हम पर सबसे पहले उस शहर की ज़बान चढ़ने लगी, जहाँ से हमारी असल भाषा का पतन शुरू हुआ।

हम उसे उतार फेंकने की जद्दोजहद में लग गए। हमें अपनी ज़बान में गंवारपन नजर आने लगा। शर्म आती थी बोलने में...कभी यह समझ नहीं आया कि वह भाषा हमें अपनी से ज्यादा क्यों प्रभावित करती... क्या खास था उसमे... जब कभी घर से आने पर लीडर रोड बस अड्डे से कीडगंज के लिए रिक्शा लेते तो यहाँ की भाषा में बोलने की कोशिश करते थे.. "कीडगंज चलबो, केतना पैसा लेबो... अबे...चूतिया-फूतिया समझे हो का... इतने में चलबा... हमहू इहाँ के ही हैं...." वगैरह-वगैरह... हमसे यहाँ ऐसा बोला गया था, जो हमारे पूर्व परचित (जिन्हे मठाधीस कहा जाता था) जो हमसे पहले इस शहर पढ़ाई के लिए आए थे, उन्होंने हमें उनकी ही भाषा में बात करने की नसीहत दी थी, ताकि वह हमें यहाँ का लोकल आदमी समझ अनाप-सनाप पैसे न ले। पर कभी यह समझ नहीं आया कि हम निरे बेकूफ थे।

कुछ गिने-चुने शहर थे...जहां, यहाँ रहते, बाद में जाने का मौका मिला था। असल में हम जा ही नहीं सके कभी इलाहाबाद छोड़कर। हाँ! यह जरूर पता था कि एक-न-एक दिन तो यह छूटेगा ही। फिर वह दिन भी आया, एक और शहर का इजाफा हो गया, हम शहर-ए-दिल्ली आ गए... जहाँ पिछले 13 बरस से अपने वजूद के लिए जद्दोजहदकर रहे हैं। हमारी भाषा यहाँ भी आकर बदल गई और पुरानी भाषा से कोफ्त होने लगी...यहाँ के लोग हिकारत की नजर से देखते थे। कहाँ से आए हो भैयये? क्या अपनाएं क्या त्यागे....

.... हम थक चुके हैं इस बदलाव से...पर अब हमारे कदम इस पर काबू पा रहे हैं...अब हम अपनी असल भाषा की तरफ वापस लौट रहे हैं।